!! सरकारी नौकरी में भर्ती नियमों को बीच में नहीं बदल सकते !!
जनसत्ता ब्यूरो नई दिल्ली, 7 नवंबर।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के नियमों में तब तक बीच में बदलाव नहीं किया जा सकता, जब तक कि ऐसा निर्धारित न किया गया हो। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि भर्ती प्रक्रिया आवेदन आमंत्रित करने वाले विज्ञापन जारी करने से शुरू होती है और रिक्तियों को भरने के साथ समाप्त होती है। वैधानिक शक्ति वाले मौजूदा नियम प्रक्रिया व पात्रता दोनों के संदर्भ में भर्ती निकायों पर बाध्यकारी हैं।
शीर्ष अदालत ने तेज प्रकाश पाठक बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय से जुड़े मामले में यह फैसला सुनाया। पीठ ने जुलाई 2023 में सुनवाई पूरी करके इस मामले का फैसला सुरक्षित रखा था, जो सोलह महीने बाद गुरुवार को सुनाया गया। पीठ में न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भीशामिल थे। पीठ के समक्ष प्रस्तुत मामले में कानूनी प्रश्न यह था कि क्या किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति के लिए मानदंड को संबंधित अधिकारियों द्वारा बीच में या चयन प्रक्रिया शुरू होने के बाद बदला जा सकता है? दूसरे शब्दों में प्रश्न यह था कि क्या खेल (नौकरी चयनप्रक्रिया) के नियमों को बीच में बदला जा सकता है। अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने के मंजूश्री आदि बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के वर्ष 2008 के सर्वोच्च न्यायालय के पहले के फैसले की सत्यता पर जोर दिया है।
इस फैसले में भी यह माना गया था कि भर्ती प्रक्रिया के नियमों को बीच में नहीं बदला जा सकता है। पीठ ने कहा कि मंजूश्री का फैसला अच्छा कानून है और इसे केवल इसलिए गलत नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें हरियाणा राज्य बनाम सुभाष चंद्र मारवाहा और अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 1973 के फैसले को ध्यान में नहीं रखा गया।
मारवाहा मामले में न्यायालय ने माना था कि लोक सेवा परीक्षा में निर्धारित न्यूनतम अंक प्राप्त करने वाले अभ्यर्थियों को चयनित होने का पूर्ण अधिकार नहीं है। साथ ही कहाथा कि सरकार उच्च मानकों को बनाए रखने के हित में उपयुक्त अभ्यर्थियों का चयन करने के लिए पात्रता के लिए न्यूनतम अंकों से अधिक अंक निर्धारित कर सकती है। यह मामला राजस्थान उच्च न्यायालय के कर्मचारियों के लिए तेरह अनुवादक पदों को भरने की भर्ती प्रक्रिया से संबंधित था।
उम्मीदवारों को लिखित परीक्षा और उसके बाद व्यक्तिगत साक्षात्कार में शामिल होना था। इक्कीस उम्मीदवार उपस्थित हुए, उनमें से केवल तीन को उच्च न्यायालय (प्रशासनिक पक्ष) द्वारा सफल घोषित किया गया। बाद में यह बात सामने आई कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने आदेश दिया था कि केवल उन्हीं उम्मीदवारों का चयन किया जाना चाहिए, जिन्होंने कम से कम 75 फीसद अंक प्राप्त किए हों। इसके बाद तीन असफल उम्मीदवारों ने उच्च न्यायालय के समक्ष रिट
याचिका दायर करके इस परिणाम को चुनौती दी, जिसे मार्च 2010 में खारिज कर दिया गया। इसके उपरांत याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यूनतम 75 फीसद अंक मानदंड लागू करने का निर्णय खेल समाप्त होने के बाद खेल के नियमों को बदलने के समान है।
इसके समर्थन में उन्होंने के मंजूश्री आदि बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में वर्ष 2008 में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया। शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि भर्ती प्रक्रिया के प्रारंभ में अधिसूचित सूची में दर्ज पात्रता मानदंड को भर्ती प्रक्रिया के बीच में तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक कि मौजूदा नियम इसकी अनुमति न दें या विज्ञापन मौजूदा नियमों के विपरीत न हो। पीठ
ने सर्वसम्मति से कहा कि यदि मौजूदा नियमों या विज्ञापन के तहत मानदंडों में बदलाव की अनुमति है तो इन्हें संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 16 (सार्वजनिक रोजगार में गैर-भेदभाव) के अनुरूप होना चाहिए, मनमाने नहीं। पीठ ने कहा कि वैधानिक शक्ति वाले मौजूदा नियम प्रक्रिया और पात्रता दोनों के संदर्भ में भर्ती निकायों पर बाध्यकारी हैं।
पीठ ने कहा कि चयन सूची में स्थान मिलने से नियुक्ति का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं मिल जाता। राज्य या उसकी संस्थाएं वास्तविक कारणों से रिक्त पद को न भरने का विकल्प चुन सकती हैं। हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि यदि रिक्तियां मौजूद हैं, तो राज्य या उसकी संस्थाएं मनमाने ढंग से उन व्यक्तियों को नियुक्ति देने से इनकार नहीं कर सकती, जो चयन सूची में विचाराधीन हैं।
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